अलंकार Figure of Speech) Alankar In Hindi Grammar (Updated)
अलंकार का शाब्दिक अर्थ है ‘आभूषण। काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्व अलंकार कहलाते हैं। जिस प्रकार आभूषणों से शरीर की सुन्दरता बढती है, उसी प्रकार अलंकारों से काव्य की शोभा बढ़ती है अलंकार के प्रयोग से काव्य मनोहारी बन जाता है।
काव्य में शब्द तथा अर्थ दोनों का ही समान महत्व है तथा दोनों ही काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते है, जैसे- कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय’ पंक्ति में कनक शब्द की पुनरावृत्ति से काव्य में सौन्दर्य का सृजन हुआ है। इस काव्य पक्ति में यदि कनक शब्द के स्थान पर इसका दूसरा अर्थ धतूरा या सोना का प्रयोग किया जाता तो काव्य की सुन्दरता समाप्त हो जाती है। इसी तरह तीन बेर खाती थी वो तीन बेर खाती है’ पक्ति में बेर’ शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हुआ है।
अलंकार के भेद:
- शब्दालंकार
- अर्थालंकार
- अनुप्रास
- उपमा अलंकार
- यमक
- रूपक अलकार
- श्लेष
- उत्प्रेक्षा अलंकार
- पुनरुक्तिप्रकाश
- अतिशयोक्ति अलकार
- पुनरुक्तिवदामास
- भ्रान्तिमान अलंकार
- वीप्सा
- अन्योक्ति अलंकार
- वक्रोक्ति
- मानवीकरण अलंकार
- विरोधाभास अलंकार
- विभावना अलंकार
- समासोक्ति
- अप्रस्तुतपरासा
- शब्दालंकार
जब शब्दों की वजह से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है तथा शोभा बड़ती है, उसे रब्दालंकार करते है।
(क) अनुप्रास अलंकार
जहाँ समान वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
अनुप्रास अलंकार के भेद– अनुप्रास अलंकार के पाँच भेद है-
(1) छेकानुप्रास
(2) वृत्यानुप्रास
(3) श्रुत्यानुवास
(4) लाटानुप्रास
(5) अन्त्यानुपास
(1) छेकानुप्रास
जब एक या अनेक वर्णों की आवृति केवल एक बार होती है, वहाँ छेकानुप्रास होता है
उदाहरण-
(क) संसार की समर-स्थली में धीरता धारण करो ।
(ख) कूके लगी कोइले कदंबन पे बैठि फेरि।
उपर्युक्त उदाहरणों में क’, ‘प’, ‘क’, ‘ध’, व तथा क’ वर्ण की आवृति एक बार हुई है। अत यहाँ छेकानुप्रास अलंकार है।
(2) वृत्यानुप्रास अलंकार
जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति अनेक वार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण-
(ख) तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
(ग) रघुपति राघव राजाराम।
उपर्युक्त प्रवाहरणों में एक ही वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुई है। अत यहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार है।
(3) श्रुत्यानुप्रास अलंकार
जब कण्ठ, तालु, दन्त किसी एक ही स्थान से उच्चरित होने वाले वर्णों की आवृत्ति होती है, तब वहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
तुलसीवारा सदित निसिविन देखत तुम्हारि निठुराई।
उपर्युक्त उवाहरण में त, व, स, न एक ही उच्चारण स्थान (दन्त्य) से उच्चरित होने वाले वर्णों की कई बार आवृत्ति हुई है अत: यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार है।
(4) लाटानुप्रास अलंकार
जहाँ एकार्थक शब्दों की आवृत्ति हो, परन्तु अन्वय करने पर अर्थ भिन्न हो जाए वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण:-
- पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
- पूत कपूत तो क्यों धन संचै ?
उपर्युक्त उदाहरण की प्रथम व द्वितीय पंक्ति में एक ही अर्थ वाले शब्द की आवृत्ति हो रही है, किन्तु अन्वय के कारण अर्थ बदल रहा है, जैसे-पुत्र यदि सपूत हो तो धन एकत्र करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं की कमा लेगा और यदि पुत्र कपूत है तो भी धन के संचय की कोई आवश्यकता नहीं होती. क्योंकि वह सारे धन को नष्ट कर देगा।
(5) अन्त्यानुप्रास अलंकार
जहाँ छन्द के शब्दों के अन्त में समान स्वर या व्यजन की आवृत्ति हो वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है।
उदाहरण–
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीश तिहुँ लोक उजागर ।।
उपर्युक्त उदाहरण के दोनों पदों के अंत में समान उच्चारण बाले शब्दों की आवृत्ति हुई है;
जैसे- सागर, उजागर।
(ख) यमक अलंकार
जब किसी की मिन्न अथ में आवृत्त हो. वहाँ यमक अलकार होता है। अर्थात एक राय बार-बार आए किन्तु उसका अर्थ बदल जाए वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण-
(1) कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
या खाए धराए जग, जा पाए बौराय।।
उपर्युक्त उदाहरण में पहले ‘कनक’ का अर्थ सोना तथा दूसरे ‘कनक’ का अर्थ धतूरा है।
(ग) श्लेष अलंकार
जब कोई शब्द एक बार प्रयुक्त हुआ हो परन्तु उसके अर्थ एक से अधिक हो वहाँ श्लेष अलंकार होता है। श्लेष अलंकार के दो भेद होते है (1) अमंग श्लेष (2) समंग श्लेष।
उदाहरण:
(1) मधुवन की छाती देखो।
सूखी इसकी कलियाँ।।
उपर्युक्त पक्ति में ‘कलियाँ शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, पहला फूल खिलने से पूर्व की अवस्था तथा दूसरा यौवन से पूर्व की अवस्था के रूप में।
(घ) पुनरुक्तिप्रकाश
जहाँ केवल सौन्दर्य-सृजन के लिए शब्दो की आवृत्ति हो, वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है, जैसे-
सखी, निरख नदी की धारा |
ढलमल ढलमल चंचल चंचल अलमल मलमल तारा।
यहाँ दलमल, चंचल और झलमल शब्दों की आवृत्ति सौन्दर्य-सृजन के लिए हुई है।
(ड) पुनरुक्तवदाभास
जहाँ भिन्न अर्थ वाले शब्द सहसा देखने से समानार्थी प्रतीत होते हो, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है, जैसे-
से पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते है।
यहाँ पर्वत और अचल शब्दों में पुनरुक्ति-सी प्रतीत होती है, परन्तु अचल से तात्पर्य है निश्चल, अतः पुनरुक्तवदाभास अलंकार है।
(च) वीप्सा
जय अत्यन्त आदर के साथ एक शब्द की अनेक दार आवृत्ति हो तो वीप्सा अलंकार होगा-
एक शब्द बहुत बार जहँ, अति आवर सो होइ ।
ताहि वीप्सा कहत हैं कवि कोपिय सब कोइ ।।
उदाहरण-
हा हा! इन्हें रोकने को टोक न लगावौ तुम।
यहाँ हा! की पुररुक्ति द्वारा गोपियों का विरह जनित आवेग व्यक्त होने से वीप्सा अलंकार है।
(छ) वक्रोक्ति
जहाँ बात किसी एक आशय से कही जाए और सुनने वाला उससे भिन्न दूसरा अर्थ लगा दे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।
वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है- () रलेष वक्रोक्ति () काकु वक्रोक्ति ।
उदाहरण-
को तुम ? हो घनश्याम हम, तो बरसो कित जाय।
नहि, मनमोहन है प्रिये, फिर क्यों पकरत पायँ ||
- अर्थालंकार:
जहाँ शब्दों के अर्थ की वजह से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो वहाँ अर्थालंकार होता है।
अर्थालकार के अनेक भेद हैं।
(क) उपमा अलंकार:
जहाँ अत्यधिक समानता के कारण एक वस्तु या प्राणी की तुलना दूसरी वस्तु या प्राणी से की जाए वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उपमा अलंकार के अंग:
उपमेय-जिसकी उपमा की जाए
उपमान-जिससे उपमा दी जाए
समान धर्म-उपमेय तथा उपमान में समानता रखने वाला
वाचक शब्द-उपमेय तथा उपमान की समता बताने वाला शब्द
उदाहरण
(1) ‘हरिपद कोमल कमल से ।
इस पक्ति में हरि के पैरों की समता कमल से की गई है अतः कमल उपमान है तथा हरि के पैर जो कि तुलना का आधार है उपमेय कहलाता है। कोमलता वाले गुण के कारण ही दोनों में समानता दिखाई गई अतः वह समान धर्म है तथा से शब्द वाचक है।
उपमालंकार के दो प्रमुख मेद है-(I) पूर्णापमा और (2) लुप्तोपमा ।
(1) पूर्णोपमा
जहाँ उपमान, उपमेय और धर्म और वाचक वारों ही शब्दों द्वारा कथित हो, वहाँ पूर्णापमा होती है, जैसे
साड़ी की सिकुड़न की जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर।
(2) लुप्तोपमा
जहाँ उपमान, उपमेय, धर्म और वाचक में से एक, दो अथवा तीनों का लोप हो अर्थात् एक शब्द द्वारा व्यक्त न हो, वहाँ लुप्तोत्मा होती है, जैसे
कुन्द इन्दु समदेह उमा रमन करुणा अयन।
यहाँ ‘गौर वर्ण का लोप है, अतः यहाँ धर्म लुप्तोपमा है।
लुप्तोपमा के प्रकार हैं-धर्म लुप्तोपमा, उपमान लुप्तोपमा, वाचक लुप्तोपमा. उपमेय लुप्तोपमा, वाचक-धर्म लुप्तोपमा, धर्मोपमान लुप्तोपमा, वाचकोपमेय लुप्तोपमा, वाचनोपमान लुप्तोपमा, धर्मापमान वाचक लुप्तोपमा, वाचक-धर्म उपमेय लुप्तोपमा ।
(ख) रूपक अलंकार
जहाँ गुण की अत्यंत समानता दिखाने के लिए उपमेय में ही उपमान का अभेद आरोप कर दिया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
रूपक अलंकार में गुण की अत्यन्त समानता दिखाने के लिए उपमेय और उपमान को एक कर दिया जाता है।
उदाहरण
(1) मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों।
उपरोक्त पंक्ति में चन्द्रमा रूपी खिलौना न कहकर चन्द्रमा को ही खिलौना मान लिया गया है अतः इसमें रूपक अलंकार है। इसमें उपमेय और उपमान दोनों एक हो गए हैं।
(ग) उत्प्रेक्षा अलंकार
जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाए, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है। उत्प्रेक्षा को व्यक्त करने के लिए मनु, मनहु, मानो, जाने जानो अदि वाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण
सोहत ओदे पीत पट, स्याम सलोने गात।
मनहुँ नीलमणि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात।।
उपर्युक्त पंक्ति में श्रीकृष्ण के सुन्दर शरीर में नीलमणि पर्वत की और उनके शरीर पर शोभा दे रहे पीले वस्त्रों में पड़ने वाली धूप की मनोरम कल्पना की गई है।
(घ) अतिशयोक्ति अलंकार
जहाँ किसी वस्तु का इतना अधिक बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया जाए कि लोकमर्यादा का अतिक्रमण हो जाए वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। इस अलंकार में लोक सीमा का अतिक्रमण करके किसी वस्तु का अमर्यादित वर्णन किया जाता है।
उदाहरण
हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग।
लंका सारी जरि गई गए निसाचर भाग।।
यहाँ हनुमान की पूंछ में आग लगने के पहले ही सारी लंका का जलना और राक्षसों के भागने का बदा-चढ़ाकर वर्णन होने से अतिशयोक्ति अलंकार है।
(3) भ्रान्तिमान अलंकार
जहाँ अत्यधिक समानता के कारण एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का भ्रम होता है वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है। जैसे
पाँय महावर देन को. नाइन बैटी आय।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी मीहिति जाय ।।
(च) अन्योक्ति अलंकार
जब किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य व्यक्ति को बात कही जाए तो वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
नहि पराग नहि मधुर मधु, नहि विकास पहि काल।
अली कली ही सौ विध्यो, आगे कौन हवाल ।।
उपर्युक्त पक्ति में कवि विहारी ने कली एवं भँवरे को आधार बनाकर राजा जयसिंह को अपने कर्तव्य के प्रति सचेत किया है ।
(छ) मानवीकरण अलंकार
जहाँ जड़ और चेतन पदार्थों को मनुष्य की तरह क्रिया करते हुए दिखाया जाता है वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है अर्थात् जब प्रकृति में मानवीय रोपण किया जाता है, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।
उदाहरण
दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से।
उतर रही है वह सध्या सुन्दरी परी सी।।
उपर्युक्त उदाहरण में संध्या की तुलना सजीव सुन्दरी से की है।
(ज) विरोधाभास अलंकार
जहाँ वास्तव में विरोध न होते हुए भी विरोध का आभार हो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण-
या अनुरागी चित्त की, गति समझे नहि कोय ।
ज्यों-ज्यों बूदै स्याम रंग, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
इसमें जैसे-जैसे श्याम रंग में डूबते है वैसे-वैसे उज्ज्वल होने की बात कही है।
(म) विभावना अलंकार
किसी कारण के बिना ही कार्य के होने का वर्णन हो, वहाँ विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण-
बिनु पग चलई सुनई बिनु काना।
कर बिनु करम करे विधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी वक्ता बड़ जोगी।।
सिर्म परौं के बिना चलने, कानों के बिना सुनने, हाथों के बिना काम करने, मुख के बिना सभी रसों का भोग करने और वाणी के बिना वक्`ता होने की बात कही है अतः यहाँ विभावना अलंकार है।
(স) समासोक्ति अलंकार
जहाँ प्रस्तुत (उपमेय) के द्वारा अप्रस्तुत (उपमान) का बोध हो, वही समासोक्ति अलंकार होता है, जैसे-
यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?
यहाँ देव मन्दिर में भी तब तक ही जन जाते है।
जय तक हरे-भरे मृदु है पल्लव प्रसून तोरण के।
इसमें ‘भग्नावशेष यौवन का रुचना’ प्रस्तुत बात है तथा ‘देव मन्दिर का तभी रुचना जब तक तोरण के पल्लव-प्रसून हरे-भरे है’ अप्रस्तुत बात है। इन दोनों में से प्रथम में द्वितीय के व्यापार का आरोप किया गया है, अतः समासोक्ति है।
(ट) अप्रस्तुतप्रशंसा (अन्योक्ति) अलंकार
जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) के द्वारा प्रस्तुत (उपमेय ) का बोध कराया जाए, वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा या अन्योक्ति अलंकार होता है, जैसे-
पर देखो तो, दिखा-दिखा दर्पण शशांक यह कैसे
सबके मन का भेद गुप्तचर सा पढ़ता जाता है,
भेद शैल-दुम का निकुज में छिपी निर्झरी का भी।
यहाँ अप्रस्तुत शैल-द्रुम तथा ‘निर्झरी’ से प्रस्तुत पुरुरवा और उर्वशी की सूचना दी गयी है, अतः अप्रस्तुतप्रशसा है।
अन्य अलंकार:
व्यतिरेक
जहाँ उपमान की अपेक्षा और उपमेय की श्रेष्ठता व्यंजित हो, वहाँ व्यतिरेक अलकार होता है। यह श्रेष्ठता दो आधारों पर व्यंजित हो सकती है-() या तो उपमेय गुणों में उपमान से श्रेष्ठ हो, (0) या उपमान स्वयं ही निकृष्ट हो, जैसे-
राधा मुख को चन्द्र-सा कहते है मति रंक।
निष्कलंक है यह सदा, उसमें प्रकट कलंक।।
यहाँ मुख उपमेय को उपमान चन्द्र की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया गया है, क्योंकि चन्द्र तो काले धब्बों से युक्त है और मुख सदा निष्कलंक है।
प्रतीप
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में कल्पित किया जाए. वहाँ प्रतीप अलंकार होता है,
जैसे-
कौन जाने, जाएगा यों ही दिन पूरा।
अयि. तुझ सी यह सध्या धूलि-धूसरा।।
यहाँ सन्ध्या को उपमेय रूप में कल्पित किया गया है।
प्रतीप के पाँच भेद होते हैं
प्रथम प्रतीप, द्वितीय प्रतीप, तृतीय प्रतीप, चतुर्थ प्रतीप और पंचम प्रतीप।
दृष्टान्त
जहाँ कही हुई बात के निश्चय के लिए दृष्टान्त देकर पुष्टि की जाती है, वहाँ
दृष्टान्त अलंकार होता है, जैसे-
सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन।
यहाँ ऊपर पहली दो पंक्तियों में सुख-दुख के मधुर मिलन से जीवन के परिपूर्ण होने की बात कही गयी है तथा अन्तिम दो पक्तियों में घन में शशि के ओझल हो जाने तथा शशि से घन के ओझल हो जाने के दृष्टान्त से उसका निश्चय कराया गया है।
उदाहरण
कोई साधारण बात कहकर ‘ज्यों, ‘जैसे’ ‘इव’ इत्यादि वाचक शब्दों द्वारा किसी विशेष बात से जहाँ समता दिखाई जाती है, वहाँ उदाहरण अलंकार होता है, जैसे-
जल उठती है प्रणय वह्न, वैसे ही शान्त इदय में,
ज्यों, निद्रित पाषाण जागरण हीरा बन जाता है।
यहाँ दोनों दाक्यों में ज्यों शब्द में बिम्ब-प्रतिबिम्य भाव प्रदर्शित किया गया है। अतः उदाहरण अलंकार है।
व्याजंस्तुति
जहाँ निन्दा के बहाने स्तुति अथवा स्तुति के बहाने निन्दा की जाए, वहाँ व्याजंस्तुति अलंकार होता है, जैसे-
निन्दा के बहाने स्तुति
गंगा क्यों टेदी चलती हो, दुष्टों को शिव कर देती हो।
क्यों यही बुरा काम करके, नरक रिक्त कर दिवि भरती हो।।
इन पंक्तियों को श्रवण करने से तो ऐसा आभासित होता है कि इसमें गंगा की निन्दा की गई है, पर है वास्तव में स्तुति।
स्तुति के बहाने निन्दा
सेमर तेरौ भाग्य यह, कहा सराह्यो जाए।
पक्षी करि फल आस जो, तुहि सेवत नित आय।।
इन पंक्तियों में सेमर वृक्ष की स्तुति-सी लगती है, पर है वास्तव में निन्दा।
असंगति
जहाँ कारण कहीं अन्यत्र और उसका कार्य कहीं अन्यत्र वर्णित हो, वहाँ असंगति अलंकार होता है
मैं अवध्य, निर्दोष, विचारा. यह क्यों नहीं दयित रे!
छला किसी ने और वज आ गिरा किसी के सिर पर।।
यहाँ कारण और कार्य भिन्न देशों में स्थित है. अतः असंगति अलंकार है।
स्मरण
जहाँ उपमान को देखकर उपमेय की याद हो जाए, वहाँ स्मरण अलंकार होता है, जैसे-
हाय, चित्रालेखे! प्रशस्तियाँ क्या-क्या नहीं सुना थी?
किसे नहीं मुख में दीखा या पूर्ण चन्द्र अम्बर का
नयनों में वारुणी और सीपी की चमक त्वचा में?
यहाँ सुकन्या ध्वयन की प्रशस्ति ‘हरि प्रसन्न, यदि नहीं, सिद्ध बनकर तुम क्यों आई हो? से मुग्ध होकर पूर्व की बातो का स्मरण करती है अत स्मरण अलंकार है।
अपन्हुति
जहाँ उपमेय का निषेध करके उपमान का आरोप किया जाए, वहाँ अपन्हुति अलंकार है, जैसे-
रूप उर्वशी नारि नहीं आभा है लिखित भुवन की,
रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है राष्टा के मन की।
यहाँ प्रस्तुत पदार्थ उर्वशी का निषेध करके उसे निखिल भुवन की आभा एवं स्रष्टा के मन की कल्पना बतलाया गया है, अतः अपन्हुति है।
अपन्हुति के छ: भेद है-1. शुद्धान्हुती, 2. हेत्वापन्हुती, 3, पर्यस्तापन्हुती, 4, भ्रातापन्हुती
5, छेकापन्हुती 6. कैतवापन्हुती।
अर्थान्तरन्यास
जहाँ सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से समर्थन किया जाए. वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।
माँ बनते ही क्रिया कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर।
यहाँ ‘हिमशिला देह की गठन खोकर पर्यस्विनि के रूप में परिणत हो जाती है’,. इस विशेष यात से माँ बनकर स्त्री देह का गठन तो खो देती है परन्तु पयस्विनी हो जाती है इस सामान्य यात का समर्थन हुआ है। अत अर्थान्तरन्यास है।
काव्यलिंग
काव्य में किसी बात को सिद्ध करने के लिए जहाँ युक्ति और कारण का कथन करके उसका समर्थन किया जाए, वहाँ काय्यलिंग अलंकार होता है। जैसे-
कनक कनक तै सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
इहिं खाए बौराय जग, उहिं पाय बौराय ।।
पहले चरण में कवि ने धतूरे से स्वर्ण की श्रेष्ठता घोषित की है। अगले चरण में इनकी पुष्टि करते हुए कहा है कि धतूरे के तो खाने पर मादकता आती है. किन्तु स्वर्ण तो मिलते ही व्यक्ति पागल हो जाता है।
विशेषोक्ति
जहाँ कारण होते हुए भी कार्य का न होना वर्णित हो, वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है, जैसे
देखो दो यो मेघ बरसते. प्यासी की प्यासी।
जल से प्यास मुझ जाती है, किन्तु यहाँ निरन्तर अश्रु प्रवाहित होने पर भी प्यास-वेदमा नहीं बुझती।
विशेषोक्ति के तीन भेद-अनुक्त निमित्ता, उक्त निमित्ता और अचिंत्य निमित्ता ।
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