छंद
छंद अक्षरों कि संख्या, मात्राओं की गणना तथा वर्गों की संगीतात्मकता, लय और गति की योजना को कहते है।छंद का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में मिलता है। इसके आदि आचार्य पिंगल माने जाते है। इसका एक अन्य नाम पिंगल भी है। ‘लौकिक संस्कृत’ के छंदों का जन्मदाता वाल्मीकि को माना जाता है।हिन्दी साहित्य में छंद शास्त्र की दृष्टि से प्रथम कृती ‘छंदमाला’ है।
परिभाषा- ‘अक्षर’ अक्षरों की संख्या एंव क्रम, मात्रा/गणना तथा यति, गति आदि में संबंधित विशिष्ट नियमों से नियोजन पद्ध रचना छंद कहलाती है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- “छोटी-छोटी सार्थक ध्वनियों के प्रवाहपूर्ण सामंजस्य का नाम छंद है।“
अज्ञेय के अनुसार- “छंद का अर्थ केवल तुक या बंधी हुई समान स्वर मात्रा या वर्ण संख्या नहीं है… छंद योजना का नाम है। जहाँ भाषा की गति नियंत्रित है, वहाँ छंद है।
छंद के अंग
(1) चरण
(2) वर्ण अथवा मात्रा
(3) कर्म
(4) यति
(5) गति
(6) तुक
(7) गण
(1) चरण
प्रत्येक छंद चरण या पद में विभाजन होता है। एक छंद में चार चरण होते है। किसी-किसी छंद में छ: चरण होते है। प्रथम व तृतीय चरण को ‘विषम’ तथा दूसरे और चौथे चरण को ‘सम’ कहते है। कुछ छंद ऐसे भी होते है, जिनमें चरणों की संख्या चार होती है, परंतु उन्हें दो पंक्तियों में लिखा जाता है; जैसे- दोहा और सोरठा।
(2) वर्ण अथवा मात्रा
मुख से निकलने वाली श्वनी को सूचित करने के लिए निश्चित किए गए चिन्ह ‘वर्ण’ कहलाते है।छंद शास्त्र में वर्ण दो प्रकार के होते है-हस्व(लघु) तथा दीर्घ(गुरु)। जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो, उसे वर्ण नहीं माना जाता है। वर्ण के उच्चारण में जो समय व्यतीतहोते है, उसे मात्रा कहे है। लघु वर्ण एकमात्रिक होता है, जैसे- अ, इ, उ, क, कि, कु।
संयुक्ताक्षर, चन्द्र बिंदु वाले वर्ण,हस्वमात्राओं वाले सभी वर्ण तथा हलन्त व्यंजन आदि लघु वर्णहोते है। गुरु के उच्चारण में लघु के उच्चारण कि अपेक्षा दुगना समय लगया है। लघु कि एक मात्रा होती है और गुरु कि दो मात्राएँहोती है। लघु का संकेत खड़ी रेखा ‘|’ और गुरु का संकेत वक्र रेखा होती है।
लघु वर्ण के अंतर्गत आने वाले शब्द
(1) लघु वर्ण-अ, इ, उ, ऋ, क्, कि, कु, कृ, अँ, हँ (चन्द्र बिंदु वाले वर्ण)
गुरु (दीर्घ) वर्ण के अंतर्गत आने वाले शब्द
गुरु वर्ण- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, कै, को, कौ समस्त अनुस्वार (-) तथा विसर्ग (:) वाले शब्द भी गुरु के अंतर्गत शामिल किए जाते है।
अनुस्वार वाले शब्द
अं, पिं, छं।
अं = अंक, पिं = पिंगल, छं = छंद
(:) विसर्ग वाले शब्द
अत:, संभवत:, प्राय:
(3) क्रम
वर्ण या मात्राओं की व्यवस्था को क्रम कहतेहै, जैसे- यदि ‘कागत पर लिखत न् बनत, कहत संदेसु लजात’ दोहे के चरण को यदि परिवर्तित कर दिया जाए तो उसका स्वरूप बदल जाएगा।इसलिए छंद में क्रम का होना अत्यंत आवश्यक है।
(4) यति
छंदों में विराम या रुकने के स्थालों कको ‘यति’ कहते है। वह छंद जो छोटे होते है, उनमें चरण के अंत में यति होता है, जबकि बड़े छंदों के एक ही चरण में एक से अधिक यति होते है।
(5) गति
छंदों को पढ़ते समय मात्राओं के लघु अथवा दीर्घ होने के कारण उत्पन्न होने वाली स्वर लहरी को गति या लय कहतेहै। गति का महत्व मात्रिक छंदों में अत्यधिकहोता है।
(6) तुक
छंदोंके चरणों के अंत में एक समान उच्चारण वाले शब्दों के आने से जो लय उत्पन्नहोतीहै, उसे तुक कहते हो जिस छंद के अंत में तुक नहीं होती, वह अतुकांत छंद कहलाते है; जैसे-
‘बंदऊ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुवास सरस अनुरागा |
अमिय मूरिमय चूरन चारु, समन सकल भवरुज परिवारू ||
इन पंक्तियों में ‘परागा’, ‘अनुरागा’, ‘चारु’, परिवारू तुकांत शब्द है।
(7) गण
तीन वर्णों के समूह को गण कहते है। गणों कि संख्या आठ है- यगण, तगण, गण,रगण, जगण, भगण, नगण, सगण |
छंद के प्रकार
मात्रा और वर्ण के आधार पर छंद मुख्यता दो प्रकार केहोतेहै-
(क) मात्रिक छंद
(ख) वर्णिक छंद
(A) मात्रिक छंद
मात्रा कि गणना पर आधारित छंद ‘मात्रिक छंद कहलाते है। इन छंदों के प्रत्येक चरण में मात्राओं कि गणना निश्चित रहती है।
(1) चौपाई
चौपाई सम मात्रिक छंदहै। इसमें चार चरण होते है और प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँहोती है। चरण के अंत में दो गुरु होते है; जैसे-
‘बंदऊ गुरु पद पदुम परागा |
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा |
अमिय मूरिमय चूरन चारु |
समन सकल भवरुज परिवारू ||
इस छंद के प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ है तथा अंत में दो गुरु है। अत: यह चौपाई छंद है।
(2) दोहा
यह अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसमें चार चरण होते है। इसमें प्रथम व तृतीय चरण में 13-13 तथा द्वित्य व चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ होती है; जैसे-
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट |
पूरा हुआ विसहुणाँ, बहुरि ना आवौंहट्ट ||
हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराइ |
बूँद समानी समद मैं, सो कत हेरी जाइ ||
(3) सोरठा
यह अर्द्धसममात्रिक छंद है। यह दोहे का विलोम होता है। इसके प्रथम और तृतीय चरण में 11-11 मात्राएँ तथा द्वितीय एंव चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती है; जैसे-
सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे |
बिहँसे, करुणा ऐन, चितऐ जानकी लखन तन ||
(4) हरिगितिका
यह चार चरण वाला सममात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है, अंत में लघु और गुरु होताहै, अंत में लघु और गुरु होता है तथा 16 व 12 मात्राओं पर यति होती है। इसमे प्रत्येक चरण के अंत में रगण होना अनिवार्य होता है, जैसे-
खग-वृन्द सोता है अत: कल कल नहीं होता वहाँ |
बस मंद मरुत का गमन ही मौन है खोता जहाँ |
इस भांति धीरे से परस्पर कह सजगता कि कथा |
यों देखते है वृक्ष ये हों विश्व के प्रहरी यथा ||
(5) बरैव
यह अर्द्धसममात्रिक छंद है।इसके प्रथम और तृतीय चरण में 12-12 मात्राएँ तथा द्वितीय एंव चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ होती है। इस प्रकार प्रतेक पंक्ति में मात्राएँहोती है; जैसे-
प्रेम प्रीति को बिरवा, चले लगाय |
सींचन कि सुधि लीजो, मुरझि जाए ||
(6) कुंडलिया
यह विषम मात्रिक छंद है। इसमे छ: छंद होतेहै। इसके प्रत्येक चरण में 24-24 मात्राएँ होतीहै। इसके प्रथम दो चरण दोहा और बाद के चार चरण रोला के होतेहै। ये दोनों छंद कुन्डली के रूप में एक-दूसरे से गुँथे होतेहै। इसलिए इसे कुंडलिया छंद कहते है; जैसे
साईं बैर ना कीजिये गुरु पंडित कवि यार |
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार ||
यज्ञ करावन हार राजमंत्री जो होई |
विप्र पड़ोसी वैद आपुको तपै रसोई ||
कह गिरिधर कविराय जुगन सो यह चलि आई |
इन तेरह कि तरह दिए बनि आवैसाईं ||
(7) गीतिका
प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होतीहै, 14 और 12 पर यति। चरणान्त में लघु-गुरु विन्यास आवश्यकहोता है।
साधु भक्तों में सुयोगी, संयमी बढ़ने लगे |
(8) रोला
मात्रिक सम छन्द है. जिसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है तथा ।। और 13 पर यति होती है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है, जैसे-
नित नव लीला ललित ठानि गोलोक अजिर में।
रमत राधिका संग रास रस रंग रुचिर में।।
अन्य उदाहरण–
स्वाति घटा घहराति मुक्ति-पानिप सौं पूरी।
कैंधो आवति झुकति सूभ्र आभा रुचि रुरी॥
मीन-मकर-जलव्यालनि की चल चिलक सुहाई।
सो जनु चपला चमचमाति चंचल छवि छाई।
(9) छप्पय
यह मात्रिक विषम छन्द है। इसमें छह चरण होते हैं-प्रथम चार चरण रोला के अन्तिम दो चरण उल्लाला के। छप्पय में उल्लाला के सम-विषम चरणों का यह योग 15 +13 = 28 मात्राओ वाला ही अधिक प्रचलित है, जैसे-
जहाँ स्वतंत्र विचार न बदले मन में मुख में।
जहाँ न बाधक बने, सबल निवलोके सुख में।
सब को जहाँ समान निजोन्नति का अवसर हो।
शांतिदायिनी निशा हर्ष सूचक बासर हो॥
अन्य उदाहरण–
नीलाम्बर परिधान हस्ति तट पर सुन्दर है।
सूर्य चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम प्रवाह फूल सारे मण्डन है
बन्दी विविध विहंग शेषफल सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद है बलिहारी इस वेष की।
हेमातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की
(B) वर्णिक छन्द
जिन छन्दों की रचना वर्णों की गणना के आधार पर की जाती है, उन्हें वर्णिक छन्द कहते हैं। वर्णिक छन्दों के प्रकार
(1) इन्द्रवजा
यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण होते हैं। इसमें दो तगण,एक जगण तथा दो गुरुहोते है।
मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हैं,
माता मुझे सो नव मित्र सा है।
देखू उसे मैं नित नेम से ही,
मानो मिला मित्र मुझे पुराना।
(2) उपेन्द्रवजा
यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण होते है. पाँचवे तथा छठे वर्ण पर यति होती है। इसमें जगण, तगण,जगण तथा दो गुरु होते हैं, जैसे
बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै ।
परन्तु पूर्वापर सोच कीजै।
बिना विचारे यदि काम होगा।
कभी न अच्छा परिणाम होगा।
(3) वसन्ततिलका
यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में चौदह वर्ण होते हैं।वर्णों के क्रम में तगण,भगण,दो जगण तथा दो गुरु होते है; जैसे-
जो राजपंथ बन-भूतल में बना था,
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे,
ऊधा छटा विपिन की अति ही अनूठी।
(4) मालिनी
यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में पन्द्रह वर्ण होते हैं । वर्णों के क्रम में दो नगण एक मगण और दो यगण होते है। 7, 8 वर्णों पर यति होती है, जैसे-
प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?
दुःख जलधि में डूबी, का सहारा कहाँ है?
अब तक जिसको मैं, देख के जी सकी हूँ,
वह हृदय हमारा, नेत्र-तारा कहाँ है?
(5) सुन्दरी सवैया
यह सम वर्णवृत्त है। इसके प्रत्येक चरण में आठ सगण और अन्त में एक गुरु मिलाकर 25 वर्ण होते हैं, जैसे
पद कोमल स्यामल गौर कलेवर राजन कोटि मनोज लजाए।
कर वान सरासन सीस जटासरसी रूह लोचन सोन सहए।।
जिन देखे रखी सतमायहु तै, तुलसी तिन तो महफेरिन पाए।
यहि मारग आज किसोर वधू वैसी समेत सुभाई सिधाए।
(6) मत्तगयन्द मालती
इसके प्रत्येक चरण में सात भगणऔर अन्त में दो गुरु के क्रम से 23 वर्ण होते हैं, जैसे
सेस महेश गनेस सुरेश, दिनेश जाहि निरन्तर गाय।
नारद से सुक व्यास रटै, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।।
(7) सवैया
वर्णिक समवृत्त छन्द। एक चरण में 22 से लेकर 26 तक वर्ण होते हैं।
इसके कई भेद हैं: जैसे-
मत्तगयंद
मत्तगयंद सुन्दरी सवैया
मदिरा सवैया दुर्मिल सवैया
सुमुखि सवैया किरीट सवैया
गंगोदक सवैया मानिनी सवैया
मुक्त्हरा सवैया बाम सवैया
सुखी सवैया भुजंगप्रयात
यहाँ मत्तगयंद सवैये का उदाहरण प्रस्तुत है –
सीस पगा न झगा तन में,
प्रभु जाने को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी लटी दुपटी,
अरु पांव उपानह की नहिं सामा।
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
रह्यो चकिसो बसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम,
बतावत आपनो नाम सुदामा॥
(8) द्रुत विलम्बित
वर्णिक समवृत्त छन्द मे कुल 12 वर्ण होते है नगण. भगण, रगण का क्रम रखा जाता है, जैसे
न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ
सफलता वह पा सकता कहाँ ?
(9) मन्दाक्रान्ता
वर्णिक समवृत्त छन्द में 17 वर्ण भगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु वर्ण के क्रम में होते हैं। यति 10 एवं 7 वर्णों पर होती है, जैसे
कोई पत्ता नवल तरु का पीत जो हो रहा हो।
तो प्यारे के दृग युगल में सामने ला उसे ही।
धीरे-धीरे सम्मल रखना औ उन्हें यों बताना।
पीला होना प्रबल दुःख से प्रेषिता सा हमारा॥
(10) शालिनी
4, 7 की यति से ।। अक्षरों (वर्णो) के मगण, तगण, तगण और अन्त में दो गुरु से विन्यस्त छन्द शालिनी होता है, जैसे-
कैसी-कैसी, ठोकर खा रहे हो,
कैसी-कैसी यातना पा रहे हो।
(11) उल्लाला
(विषमनि पन्द्रह धुरिये कला, सम तेरह ‘उल्लाल’ कर)
उल्लाला छन्द के विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 15 मात्राएँ तथा सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 13 मात्राएँ होती हैं इस प्रकार इसकेप्रत्येक दल में 28 मात्राएँ होती हैं, जैसे-
हम जिधर कान देते उधर, सुन पड़ता हमको यही।
जयजयभारतवासीकृति, जय जयभारतमही।।
सब भाँति सुशासित हो जहाँ समता के सुखकर नियम।
बस उसी स्वशासित देश में, जागे हे जगदीश हम।
(12) वंशस्थ
(लसै सुवंशस्थ जता जरा शुभा)
वंशस्थ छन्द जगण, तगण, जगण और रगण के योग से बनता है। इस प्रकार इसके प्रत्येक चरण में 12 वर्णहोते हैं: जैसे-
बसन्त ने, सौरभ ने, पराग ने
प्रदान की भी अति कान्त भाव से।
वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को,
मनोज्ञता, मादकता, मदान्दता।।
(13) कवित्त
कवित्त छन्द के प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते है। 16वें और 15वें वर्ण पर यति होती है। इस छन्च में चरणान्त में गुरु (5) होता है, यथा
रस के प्रयोगिन के सुखद सुजोगिन के,
जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई है।
तिनके चलावन की चरचा चलावै कौन,
देत न सुदर्शन यों सुधि विसराई है।
करत न उपाय न सुभाय लखि नारिन को.
भाय क्यों अनारिन की भरत फन्हाई है।
ह्याँ तो विषम. ज्वर. वियोग की चढ़ाई यह,
पाती कौन रोग की पठायत दवाई है||
दृष्टव्य- इसे ‘मनहर’ व ‘मनहरण’ छन्द भी कहा जाता है।
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